सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

कपड़ों की पंचायत

किसी के फुसफुसाने से एकाएक नींद टूटी। मैंने आंखें खोली और मोबाइल में टाइम देखा। रात के ढ़ाई बज रहे थे। आवाजें बहुत तेजी से आ रही थी। मैंने खिड़की के बाहर झांका। कोई दिखाई नहीं दिया। लगा घर में चोर घुस आए हैं। टेबल की दराज से टॉर्च निकाली और हल्के से कमरे का दरवाजा खोला। बाहर केवल अंधेरा था। टॉर्च जलाई, एक-एक कर सारे कमरें, बरामदा, छत सब देख लिया। घर में कोई नहीं था सिवाय मेरे। मैं वापस अपने कमरे में आ गई। लाइट बंद की और सोने की कोशिश करने लगी। लेकिन, फिर वही आवाजें। पर, इस बार आवाज मेरे कबर्ड से आ रही थी।
मैंने कबर्ड पर कान लगाया। ध्यान से सुना। ये क्या? कपड़े बातचीत कर रहे थे! कपड़ों की पंचायत हो रही थी। और सरपंच थी हरी शर्ट, जिन्हें सब हरी बहन कहकर बुला रहे थे। बहरहाल पंचायत शुरू हो चुकी थी। सबसे पहले आया कोट। वह बोला- देखो शर्ट बहनजी, पूरी सर्दियां निकल गई, मजाल है जो मुझे एक बार भी पहना गया हो। अलमारी में रखे-रखे सारा शरीर अकड़ गया। देखिए, आप ही देखिए कितनी सलवटें आ गई हैं मुझ पर। कुछ न हो तो मुझ पर प्रेस करवाकर हैंगर में ही टांग दो।
अलमारी पर कान लगाए मैं सब सुन रही थी। इसके बाद बारी लाल सूट की थी। वह पीले सूट की शिकायत करते हुए बोला- देखिए सरपंच साहिबा, जब से ये पीलू आया है मैडम (यानी कि मैं) ने मुझे पहनना ही बंद कर दिया है। पहले तो इसने आते ही मेरी जगह हथियाई। अब जैसे ही वह मुझे पहनने को होती है ये पीलू अपनी टांग अड़ा देता है। और तो और मंगलवार का दिन भी नहीं छोड़ता। इतने में पीछे से आवाज आई- अरे मियां लालू, गुस्सा काहे होते हो। हम भी तो महीनों से चुपचाप पड़े हैं, तुम्हें भी आदत हो जाएगी। यह मेरा काले सफेद प्रिंट वाला कुर्ता था जिसे मैंने तीन-चार महीनों से नहीं पहना था। इतने में कुर्ता फिर बोला। इस बार वह अपने पड़ोस में बैठी महरून सलवार से कह रहा था। 'अपने दिन भूल गया ये लालू। जब ये आया था तो ऐसी ही शिकायतें लेकर मैं भी गया था सरपंच के पास। तब कुछ नहीं हुआ तो अब क्या होगा।
इतने में किसी की दर्द भरी आह सुनाई दी। वो मेरी चादर थी। सरपंच ने पूछा- क्या हुआ चाची क्यों करहा रही हो। चादर बोली- बिटिया हमें इस मशीन की धुलाई से छुटकारा दिलवाओ तो जिंदगी चैन से कटे। चक्कर घूमते-घूमते इतनी बार मशीन की दीवारों से टकराती हूं कि सारे हाथ-पैर टूट जाते हैं। तपाक से जुराब बोली- चाची बुढ़ापे में बड़ी शिकायती होती जा रही हो। पहले थापी की पिटाई से दर्द होता था। अब मशीन में चक्कर आते हैं। चादर बोली- बिटिया दिन तो पहले ही अच्छे थे। हाथों से रगड़कर आहिस्ता आहिस्ता साफ होती थी। एक एक कोना चमकता था। अब तो...।
तभी तेजी से घंटा बजा और एक जोरदार आवाज। 'सुबह के चार बज चुके हैं। पंचायत का समय खत्म हुआ। अब सभी कपड़े अपनी अपनी जगह जाए। ये कड़क आवाज मेरे पर्पल सूट की थी जिस पर मैंने कल ही स्टार्च लगाया था। खैर पंचायत खत्म हो गई। सब अपनी जगह पहुंच गए। और मैं भी वापस अपने बिस्तर पर। इस प्रण के साथ कि कल सुबह सबसे पहले अपने कपड़ों की शिकायतें दूर करूंगी।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

मेरी नज़र में चंडीगढ़

अगस्त में मेरा ट्रान्सफर चंडीगढ़ हो गया है। मैं करीब ३-४ महीने से यहाँ हूँ। यह एक विकसित शहर है। पक्की सड़के पानी, बिजली सब टाइम पर आता है, सुरक्षा के लिहाज से (महिलाओ के संदर्भ में) भी ठीक शहर है। इस शहर की ज्यादातर आबादी आराम पसंद है। क्वालिटी ऑफ लाइफ उन्हें सबसे प्यारी है। यहाँ बुजुर्ग लोग ज्यादा रहते है। और यदि मैं अपना अनुभव बताऊ तो मुझको यहाँ के लोग बेहद लालची भी लगते है।
यहाँ रहने के लिए घर ढूँढना मुश्किल काम है। बहुत सारे इंस्टिट्यूट खुल जाने के कारण आपको यहाँ रहने के लिए एक अदद मकान नहीं मिलेगा, क्योकि लोगों ने ज्यादा इनकम के लिए पीजी (पेइंग गेस्ट) रखने शुरू कर दिए है। इन पीजीस में हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, जम्मू वगेरह शहरों से आई लड़कियां रहती है। मैं अभी तक किसी जम्मू की रहने वाली लड़की के साथ नहीं रही इसलिए इसी आधार पर कह रही हूँ कि जम्मू को छोड़कर बाकी शहरो की लड़कियां काफी लाउड होती है। दरअसल उनके यहाँ बातचीत का सामान्य तरीका यही है। यदि आप सोच रहे हैं कि आपको रिजनेबल रेंट पर एक अच्छा घर मिल जायेगा तो यह थोडा नहीं बहुत मुश्किल है। यहाँ फेसिलिटी कम और पैसा ज्यादा देना पड़ता है।
यहाँ हर घर में ओसतन तीन कार हैं। सो पार्किंग एक बड़ा इशू है। पैसा ज्यादा होने और वक्त की कमी के चलते माँ बाप बच्चों को जल्दी कार की चाबी दे देते है। यहाँ रोड एक्सिडेंट ज्यादा होते है। क्योकि रेश ड्राइविंग होती है। जो बच्चे ही नहीं बड़े भी खूब करते है। कुछ ही दिनों पहले १४ से १९ साल के बच्चों में शराब पीने की आदत पर किये गए एक सर्वे में चंडीगढ़ का स्थान पूरे भारत में दूसरा था।

मंगलवार, 29 जून 2010

भोपाल

आज भोपाल शहर के बारे में बताती हूँ। भोपाल दिल्ली के मुकाबले छोटा शहर है। पहले ही साफ़ कर दूँ की मैं भोपाल की तुलना दिल्ली से बिल्कुल भी नहीं कर रही हूँ । बस एक रेखाचित्र दिमाग में बन जाये इसलिए यहाँ दिल्ली का नाम लिया है।

बुधवार, 2 जून 2010

bhopal

भोपाल में रहना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है। एक घर नहीं मिल रहा है। काम की समस्या नहीं है पर एक घर तो मिल जाये रहेने के लिए। परेशानिया तो बहुत है पर मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ की मैदान छोड़ कर भाग जाऊ । परेशानिया है तो इनका हल भी जरुर होगा। अब वह हल ही खोजना है।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

बवाल की बजाय दोस्ती

भारत में हर बात पर बवाल होता है । महिला आरक्षण बिल, मंहगाई, बजट, क्रिकेट, पडोसी से बातचीत पर लड़ाई। थोड़ा सा प्यार और दोस्ती भरा व्यवहार क्यों नहीं अपनाते हम।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

आम आदमी की भावनाएँ

इंसान में भावनाएं होना बहुत जरूरी है। लेकिन हम हिंदुस्तानी लोग कुछ ज्यादा ही भावुक होते हैं इसलिए बात-बात पर हमारी भावनाएं भड़क जाती हैं। अब एम एफ हुसैन की विवादास्पद पेंटिंग को ही लीजिए। लोगों की भावनाएं इतनी ज्यादा भड़की कि हुसैन को भारत छोड़कर दुबई जाना पड़ा। आखिर हुसैन ने ऐसा क्या गुनाह किया कि कुछ कट्टरपंथी लोग उनकी जान के दुश्मन बन गए। अब खबर है कि उन्होनें कतर की नागरिकता स्वीकार कर ली है। हुसैन ने अपनी पेंटिंग बनाते हुए जो किया था वह एक पेंटर की अभिव्यक्ति थी। उससे हम सहमत और असहमत दोनों हो सकते है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार हर व्यक्ति के पास है। लेकिन विरोध करने का भी एक तरीका होता है। और फिर जो पेंटिंग वर्ष 1970 में बनी थी उस पर तब किसी ने विरोध दर्ज क्यों नहीं किया। 25 साल बाद ही कुछ लोगों को क्यों इसकी याद आई? देश में मंहगाई बढ़ती जा रही है, बेरोजगारी ,खासकर शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, आए दिन भष्ट्राचार के मामले सामने आ रहे है, कृषि की उत्पादकता घटती जा रही है। कुछ करना ही है तो इन क्षेत्रों में किया जाना चाहिए। नेता सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेंकने और चर्चा में रहने के लिए ही आम आदमी की भावनाओं की आड़ लेते हैं। करने को तो बहुत कुछ है शायद हम उस और देखना ही नहीं चाहते।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

एक बार ब्लॉग बन जाए तब भी उसको देखेने के लिए भी बहुत मेहनत करनी पड़ती है.